उसकी याद

रोज़ तारों को नुमाइश मैं खलल पड़ता है

चाँद पागल ही अँधेरे में निकल पड़ता है

में समंदर हूँ कुधाली से नहीं कट सकता

कोई फव्वारा नहीं हूँ जो उबल पड़ता है

कल जहाँ चाँद उगा करते थे हर आहट पर

अपने रस्ते में जो वीरान महल पड़ता है

न तारुफ़ न ताल्लुक है मगर दिल अक्सर

नाम सुनता है तुम्हारा उछल पड़ता है

उसकी याद आई है साँसों ज़रा धीरे चलो

धडकनों से भी इबादत में खलल पड़ता है

Comments

  1. वाकई इस कविता में शब्दों का हर एहसास बहुत ही खुबसूरत है...

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